स्वामी अभिमुक्तेश्वरानंद जी का हालिया बयान और राजनीतिक रुख चर्चा का विषय बन गया है। पहले महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे जी को मुख्यमंत्री बनने का आशीर्वाद देने वाले शंकराचार्य जी ने अब एकनाथ शिंदे के महायुति गठबंधन की प्रशंसा करते हुए जनसमर्थन की अपील की है। इस बदलते रुख ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं।फोटो सोर्स गूगल
उद्धव ठाकरे को दिया गया समर्थन
मुकेश अंबानी की बेटी की शादी के अवसर पर शंकराचार्य स्वामी अभिमुक्तेश्वरानंद जी ने उद्धव ठाकरे जी से मुलाकात की थी और उन्हें महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने का आशीर्वाद दिया था। उस समय उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और एकनाथ शिंदे के गुट पर खुलकर निशाना साधा था और गद्दार कहकर संबोधित किया था। शंकराचार्य जी के इस समर्थन से ऐसा लगा कि उद्धव जी के पक्ष में धार्मिक और नैतिक समर्थन खड़ा हो गया है।
गौ माता और महायुति का समर्थन
हालांकि, चुनाव से ठीक पहले शंकराचार्य जी का रुख अचानक बदल गया। उन्होंने एकनाथ शिंदे की उस घोषणा की सराहना की जिसमें गौ माता को राज्य माता का दर्जा दिया गया था। इसी आधार पर शंकराचार्य जी ने महाराष्ट्र के लोगों से महायुति को वोट देने की अपील की। चुनाव परिणाम के बाद जब महायुति को भारी बहुमत मिला, तो शंकराचार्य जी ने इसे धर्म और संस्कृति की जीत बताया।
उठते सवाल
शंकराचार्य जी के इस बदले हुए रुख ने उनकी आस्था और राजनीतिक प्रभावशीलता पर सवाल खड़े कर दिए हैं:
1. हृदय की पीड़ा का क्या हुआ?
उद्धव जी को मुख्यमंत्री बनने का आशीर्वाद देने के पीछे शंकराचार्य जी ने कहा था कि उनकी हृदय की पीड़ा तभी दूर होगी जब उद्धव ठाकरे फिर से मुख्यमंत्री बनेंगे। लेकिन चुनाव में महायुति की जीत के बाद इस पीड़ा का जिक्र गायब हो गया।
2. आशीर्वाद की शक्ति पर संदेह?
यदि शंकराचार्य जी का आशीर्वाद इतना प्रभावी था, तो उद्धव जी चुनाव में कमजोर स्थिति में क्यों पहुंचे? क्या उनके आशीर्वाद में वह शक्ति नहीं है जो राजनीतिक परिणाम बदल सके?
3. धर्मगुरु का पलट जाना?
क्या शंकराचार्य जी भी अब हवाई रुख देखकर अपने विचार बदलने लगे हैं? पहले गद्दार कहे गए नेताओं को अब गौ माता के नाम पर समर्थन देना क्या धार्मिक मूल्यों के साथ समझौता नहीं है?
स्वामी अभिमुक्तेश्वरानंद जी का यह दोहरा रुख न केवल उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि धर्मगुरु भी राजनीति की चालों से अछूते नहीं रहे हैं। यह घटना इस बात की ओर इशारा करती है कि धर्म और राजनीति का यह गठजोड़ कहीं न कहीं जनता के विश्वास को ठेस पहुंचाता है।
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